कर्म का पथ: पाँच विकारों से मुक्ति का मार्ग
भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने हमें सिखाया है कि इंसान का कर्तव्य अपने कर्म का पालन करना है, न कि पांच विकारों के जाल में फंसकर अपने जीवन को व्यर्थ करना। ये पाँच विकार – काम, क्रोध, लोभ, मोह, और अहंकार – मानव मन को भटकाते हैं और उसे उसके असली कर्तव्य से दूर ले जाते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है:
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥"
(भगवद गीता 2.47)
इसका अर्थ है कि इंसान का अधिकार केवल कर्म पर है, न कि उसके फल पर। जब हम अपने कर्तव्य का पालन करते हैं और अपने कर्म में लगे रहते हैं, तभी हम इन पांच विकारों से दूर रह सकते हैं। ये विकार हमारी चेतना को कमजोर करते हैं और हमें माया के भ्रम में डालते हैं।
1. काम (लालच और इच्छाओं का अतिरेक)
श्रीकृष्ण ने बताया कि अति कामना और लालच इंसान को भटका देते हैं। गीता में उन्होंने कहा है:
"ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते। संगात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥"
(भगवद गीता 2.62)
अर्थात, जब मनुष्य विषयों का चिंतन करता है तो उनमें आसक्ति उत्पन्न होती है, आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है। इसलिए काम को त्याग कर व्यक्ति अपने कर्तव्य की ओर ध्यान केन्द्रित कर सकता है।
2. क्रोध (गुस्सा और असंतोष)
क्रोध मानव की बुद्धि और शांति का नाश करता है। गीता में भगवान कहते हैं:
"क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥"
(भगवद गीता 2.63)
क्रोध से मनुष्य की बुद्धि का नाश होता है, और बुद्धि नष्ट हो जाने से वह अपने सत्य मार्ग से भटक जाता है। केवल शांत और स्थिर मन से ही हम अपने कर्तव्य का पालन कर सकते हैं।
3. लोभ (लालच)
लोभ से मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है। जब हम लोभ में फंसते हैं, तो हम सत्य और धर्म से दूर हो जाते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो सात्विकता का अनुसरण करता है, वह लोभ के जाल से मुक्त रहता है:
"त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥"
(भगवद गीता 16.21)
इसका अर्थ है कि काम, क्रोध, और लोभ ये तीन नरक के द्वार हैं और इनसे आत्मा का विनाश होता है। इसलिए इन विकारों को त्यागना आवश्यक है।
4. मोह (अज्ञान और भ्रम)
मोह मनुष्य को सच्चाई से दूर कर देता है। यह उसकी आत्मा को अपने असली स्वरूप से भटकाकर माया में उलझा देता है। श्रीकृष्ण ने हमें चेताया है:
"मायाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥"
(भगवद गीता 9.10)
प्रकृति भगवान की अधीन है और मोह के कारण हम इस माया में उलझ जाते हैं। अपने कर्म को समझने और मोह को त्यागने से ही हम आत्मज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
5. अहंकार (अहम् और गर्व)
अहंकार से मनुष्य का विनाश होता है। जब हम अहंकार में डूब जाते हैं, तो अपने असली कर्तव्य और दूसरों के प्रति हमारे उत्तरदायित्व को भूल जाते हैं। गीता में भगवान कहते हैं:
"अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्। विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥"
(भगवद गीता 18.53)
इसका अर्थ है कि अहंकार, शक्ति का दुरुपयोग, और काम व क्रोध को त्याग कर ही मनुष्य शांति प्राप्त कर सकता है।
निष्कर्षतः, श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट किया है कि मनुष्य को अपने कर्म के मार्ग पर चलना चाहिए, और इन पांच विकारों को त्याग देना चाहिए। इन विकारों का त्याग ही हमें आत्मज्ञान, शांति और मुक्ति की ओर ले जाता है। गीता के इन उपदेशों का अनुसरण करके ही हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं।