धोखे से हासिल हुई चीज़ों पर गर्व नहीं होता, और ईमान बेचकर मिली चीज़ें बहुत वज़नी होती हैं।

धोखे से हासिल की गई चीजों में गर्व नहीं होता, और ईमान बेचकर जो पाया जाता है, वो अंततः भारी पड़ता है। जैसे भगवद गीता में कहा गया है, "कर्म का फल सदा मिलता है, और अधर्म से अर्जित किए धन से सुख नहीं मिलता।" जिस चीज को पाने के लिए इंसान ने ईमान और सच्चाई की बलि दी हो, वो चीज कभी भी दिल को सुकून नहीं दे सकती। वो बस एक अस्थायी छलावा है, जो मन को भटकाता है और आत्मा को शांति से वंचित कर देता है।

गहरी बात यह है कि हम जैसे-जैसे धोखे से चीजें पाते जाते हैं, हमारी आत्मा पर एक काला पर्दा सा पड़ता जाता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, "धर्म का पालन करने से ही सच्चा सुख और शांति प्राप्त होती है," मगर जो धन और ताकत अधर्म के मार्ग से कमाए गए हैं, वे हमारे दिल पर भारी बोझ बनकर रह जाते हैं। यह बोझ हमारे हर खुशी के पल पर काला साया डालता है, हर गर्व का एहसास उस धोखे की याद में बदल जाता है।

इसके विपरीत, जब हम सच्चाई और कर्म के मार्ग पर चलते हैं, तब आत्मा में एक हल्कापन महसूस होता है, एक सच्चा गर्व जो केवल ईमानदारी से अर्जित किए गए सुख में होता है। गीता का यह अमर संदेश कि "जो मनुष्य सत्य और धर्म के मार्ग पर अडिग रहता है, वही परम शांति को प्राप्त करता है," हमें यही सिखाता है कि सही मायने में सफलता वही है जो आत्मा को शांति और मन को संतोष दे सके।

जब हम धोखे और अधर्म से दूर रहते हैं और सच्चाई के मार्ग पर अडिग रहते हैं, तब हम उस सत्य के करीब पहुंचते हैं जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने "स्वयं का परमात्मा" कहा है। गीता में श्रीकृष्ण ने साफ कहा है, "मनुष्य स्वयं को धोखा दे सकता है, मगर कर्म का न्याय उसे हर हाल में मिलता है।" जो अधर्म के बल पर धन और वैभव प्राप्त करता है, उसके अंतरात्मा का बोझ उसे कहीं चैन से बैठने नहीं देता।

अतः, जो गर्व हमारे ईमान को गिराकर, सच्चाई को खोकर पाया जाता है, वह वास्तव में एक मिथ्या गर्व है। सच्चा गर्व वही है, जो हमारी आत्मा को प्रकाश की ओर ले जाए और हमारे भीतर की शांति को बढ़ाए। गीता में यही सिखाया गया है कि जब हमारा मन सच्चाई के मार्ग पर चलता है, तब हमारी आत्मा सुकून और शांति में होती है।